ईमानदार लकड़हारा
एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक ईमानदार लकड़हारा रहता था। उसका नाम रमेश था। रमेश प्रतिदिन जंगल जाकर लकड़ियाँ काटता और उन्हें बाजार में बेचकर अपने परिवार का गुजारा करता था। उसका जीवन साधारण लेकिन खुशहाल था।
एक दिन, जब वह नदी के किनारे लकड़ियाँ काट रहा था, उसकी कुल्हाड़ी अचानक उसके हाथ से छूटकर नदी में गिर गई। वह कुल्हाड़ी उसके लिए बहुत मूल्यवान थी, क्योंकि उसकी आजीविका उसी पर निर्भर थी। नदी गहरी और अंधेरी थी, इसलिए रमेश को अपनी कुल्हाड़ी वापस पाने की कोई उम्मीद नहीं थी। वह निराश होकर नदी के किनारे बैठ गया और दुखी होकर रोने लगा।
तभी, एक देवदूत प्रकट हुआ और रमेश से उसके दुःख का कारण पूछा। रमेश ने अपनी कहानी सुनाई। देवदूत नदी में गया और थोड़ी देर बाद एक सोने की कुल्हाड़ी लेकर वापस आया और पूछा, "क्या यह तुम्हारी कुल्हाड़ी है?" रमेश ने ईमानदारी से जवाब दिया, "नहीं।"
देवदूत फिर से नदी में गया और इस बार एक चांदी की कुल्हाड़ी लेकर आया। फिर से, रमेश ने ईमानदारी से उत्तर दिया, "नहीं, यह भी मेरी नहीं है।" आखिर में, देवदूत नदी से एक लोहे की कुल्हाड़ी लेकर आया, जो रमेश की ही थी। रमेश ने खुशी-खुशी उसे पहचान लिया और कहा, "हाँ, यह मेरी कुल्हाड़ी है।"
देवदूत रमेश की ईमानदारी से प्रसन्न हुआ और उसे तीनों कुल्हाड़ियाँ - सोने की, चांदी की और लोहे की - उपहार स्वरूप दे दीं। देवदूत ने रमेश को आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गया।
रमेश की ईमानदारी ने उसे अनपेक्षित धन-संपत्ति दिलाई
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